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कविता

आँधी

त्रिलोचन


चली है आँधी जो गिरी पथ वनों में गरजती
गुँजाती वेगों से गगन अचला को, प्रलय के
सहस्रों शंखों की मिलित ध्वनि गूँजी, तड़ित की
कड़ाके की धारा पसर कर फैली भुवन में।

खगों के नीड़ों को अकरुण करों से पकड़ के
उछाला तारों में, करुण रव से आज उन के
धरा भी काँपी जो परवश पड़ी थी। अनय के
प्रहारों से हारी, भव-भय भरे प्राण-तल में

डरे चौपाए भी चकित नयनों से निरखते -
हुआ क्या, ऐसी क्या अघट घटना आज घट के
रहेगी, थानों से लग कर कँपे और उछले
छुटे जो थे वे भी, अगम ध्वनि से और भभरे

उखाड़ा पेड़ों को पटक कर आगे बढ़ चली
कुटीरों को थामे अलख कर से दूर पटका
खिले फूलों को भी गह कर चली और खिर के
पड़े बेचारे से अदिन अपना देख कर यों

जलों को भी छेड़ा मथ कर उन्हें और तट से
उछाला तीरों को इस तरह गीला कर दिया
गृही पर्णावासी स्तिमित दृग से मौन अपने
उसी को अर्घ्यों से शमित करते हैं विवश से

भला बच्चों को क्या, कुतुक यह पा के खिल उठे
उन्हें आवासों का तिल भर नहीं खेद करना
चिरौटे जो जैसे मर कर पड़े देख उन को
उठाते हैं हाथों द्रवित मन में मौन करुणा

गिरा पेड़ों से जो दल अनमने से अटल हैं
किसी की डालें ही छट कर पड़ी हैं अलग हो
अभी छिन्नांगों में अविदित कहानी लिखित सी
दिखानी हैं, देखें नयन, मन भी घाव समझें

 


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